सतनाम दर्षन एवं महिला समानता

 

प्रो. सीमा जायसी1, डॉ. विनोद कुमार साहू2

1शासकीय डॉ. इन्द्रजीत सिंह महाविद्यालय अकलतरा, जिला - जांजगीर-चांपा (..)

2अतिथि व्याख्याता, हिन्दी षासकीय डॉ. इन्द्रजीत सिंह महाविद्यालय, अकलतरा,

जिला - जांजगीर-चांपा (..)

*Corresponding Author E-mail: jaysiseema34@gmail.com

 

ABSTRACT:

छत्तीसगढ़ में सतनाम पंथ की शुरूआत कैसे हुई? रायपुर जिले के गजेटियर 1973 के अनुसार अधिकांष सतनामी संत रामानंद के षिष्य रोहिदास (रविदास, रैदास) को सतनाम नंथ के पवर्तक मानते है, इसी कारण वे अपने आप को रोहिदासी भी कहते है। क्या स्वयं संत रोहिदास ने छत्तीसगढ़ में आकर सतनाम का प्रचार किया था या किसी अन्य के माध्यम से सतनाम पंथ के उपदेष का आगमन छत्तीसगढ़ में हुआ। हीरालाल ने यह संभावना व्यक्त की है कि बाराबंकी जिले के एक राजपूत जगजीवन उसय ने उत्तर भारत में सतनामी पंथ की शुरूआत की थी तथा गुरूघासीदास ने उनसे प्रेरणा ग्रहण की थी। गुरूघासीदास द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की घटना के पीछे तीन विवरण प्रचलित है। रसेल और हीरालाल के अनुसार गुरूघासीदास जगन्नाथ पुरी की यात्रा के लिए निकले थे, सारंगढ़ (जिला - रायगढ़) के पास उसमें ज्ञान की ज्योति जागी, अतः वे जगन्नाथ पुरी की यात्रा में आगे जाकर सतनाम-सतनाम कहते वापस गये। सोनाखान के जंगलों में लम्बी साधना और कठीन तपस्या कर उन्होने अपने सिद्धांतो और विचारों को अधिक स्पष्ट स्वरूप प्रदान किया। अन्य विवरणों के अनुसार सोनखान के जंगल में ही साधना और तपस्या से उन्हे ज्ञान की प्राप्ति हुई। एक अन्य विवरण के अनुसार वे जगन्नाथ पुरी की यात्रा में गये और वहां से सतनाम पंथ के सिद्धांतो का ज्ञान प्रकाष लेकर छत्तीसगढ़ वापस आये। इस संबंध में सही निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए छत्तीसगढ़ के सतनाम पंथ के सिद्धांतो, उनके अनुयायियों के विचार, जीवन प्रणाली एवं इतिहास का व्यवस्थित अध्ययन की आवष्यकता है।     सतनामी समाज संत षिरोमणी गुरूघासीदास जी के सतनाम धर्म के पथ पर चलने वाले लोगो का विषाल जनसमुह है, जिसका प्रमुख उद्देष्य मानव-मानव एक समान, सत्य, प्रेम, अहिंसा, स्वतंत्रता, स्वाधीनता, समानता का संदेष है। गुरूघासीदास जी के अनुसार - ‘‘मनखे-मनखे एक समान‘‘ अर्थात् मानव एवं अन्य पषु-पक्षी सहित समस्त सजीव-निर्जीव निर्माण का निर्धारण योनी अनुकूल मूल प्रवृत्तियों में समानता प्रकृति प्रदत्त हो। इसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव हो। जाति वर्ग निर्धारण मानव निर्मित भेदभाव, छुआछूत के भंवर में उलझकर अपने मूल मानव धर्म को भूल चुका है।

 

KEYWORDS: सतनामी समाज, सामाजिक समानता

 


 


 

प्रस्तावना  

उपरोक्त संदर्भानुसार महिला भी एक जीव है, वह भी समाज में समानता की अधिकारी है। कई बार समानता शब्द का अर्थ - एकरूपता या समरूपता से लिया जाता है। सामान्य रूप से समानता का व्यावहारिक जीवन में कई आधार है जैसे - सामाजिक समानता, आर्थिक समानता, राजनैतिक समानता, शैक्षिक समानता, सास्कृतिक समानता आदि।

 

भारत के संविधान में अनुछेद 14 से 18 तक समानता या समता का मौलिक अधिकार भारत के सभी नागरिकों को प्रदान किया गया है। संविधान में समानता के इस अधिकार का उल्लेख करने की आवष्यकता इसलिये पड़ी क्योंकि शताब्दियों से भारतीय समाज में कतिपय वर्ग जैसे हरिजन, अनुसूचित जाति, जनजाति समाज के अन्य पिछड़े वर्ग की महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार नहीं किया गया है।

 

सत् का अर्थ सत्य नाम का अर्थ वह विषेष शब्द जो परम तत्व या परमात्मा से संबंधित हो अर्थात् सतनाम का सीधा संबंध परमात्मा या सत्य की आत्मा से जुड़ा हुआ हो। सतनाम दर्षन भारत की अत्यंत प्राचीन परंपराहै जो आध्यात्मिकता से सीधे जुड़ा है। गुरूघासीदास के पथ प्रदर्षक जगजीवन दास उत्तर प्रदेष के क्षत्रिय थे तथा सतनाम परंपरा के उपासक थे। वे ईष्वर, राम, कृष्ण, दुर्गा आदि को सत् रूप मानकर चलने वाले समन्वयवादी साधक, दार्षनिक तथा समाज सुधारक थे। गुरूघासीदास जी की सत्य साधना मूलतः यौगिक धरातल पर केन्द्रीत है, जिसक मूल उद्देष्य मानव जीवन के दुखों का शमन करना, जनता का दारिद्र हरण करना तथा इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाना है। ये कार्य केवल जनजागृति से संभव किया जा सकता है। सतनाम दर्षन का मूलाधार मानवतावादी‘‘ है। इसके अनुसार तो मानव-मानव में अंतर है और ही नर और नारी में किसी प्रकार का अंतर या भेद है।

 

नारी को माया, अधम, पतिता, योग्य, वस्तु या विलासिता मात्र समझना किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। नारी ही मानव समाज की जननी है। वह अमृत, करूणा, पूजा, ममता, प्रगति, प्रतिज्ञा, पूर्णता, समता, शान्ति, साधना, सिद्धी, प्रेरणा की प्रतिमूर्ति है। नारी की उन्नती एवं सम्मान के बिना समाज की धारणा को बदलना असंभव है। सतनाम दर्षन के अनुसार नारी, मां, बहन, बेटी, अर्धांगिनी आदि रूपों में प्रेरणा देने वाली है, जिसे आदर सम्मान के साथ समानता प्रदान कर समाज को स्वर्ग बनाया जा सकता है।

 

आलोचक काल मार्क्स ने भी कहा है - किसी समाज के स्तर के मापन के लिए उस समाज में स्त्रियों की स्थिति को देखना चाहिएं।‘‘

 

प्राचीन काल से समाज में यह आम धारणा थी की छोटी निम्न जाति के लोग घृणित विषेषकर स्त्रियां चरित्रहीन केवल भोग की वस्तु होती है। उच्च वर्ग के लोग इन कमजोर महिलाओं को बलात् अपनी वासना का षिकार बनाते थे। उचित षिक्षा एवं सामाजिक प्रतिष्ठा सम्मान नहीं मिलने के कारण निम्न वर्ग गरीब महिलाओं का आज भी शोषण किया जाता है तथा वह केवल उपयोग की वस्तु मात्र है।

 

सतनाम पंथ ने समाज के इस कुभावना को समझकर समाज में चरित्र निर्माण का संदेष दिया। समाज में एक अच्छे चरित्र निर्माण से ही स्वच्छ समाज की प्रतिष्ठा की जा सकती है।

 

सतनामी या सतनाम धर्म सनातन धर्म का ही अपभ्रंष है। इस जाति धर्म के लोग संत षिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के जन्म के पूर्व भी थे, किन्तु अधिकांष रूप में अर्थात् सही रूप में बाबाजी के बाद ही यह धर्म प्रकाषमान हुआ। सतनामी समाज संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी का सतनाम धर्म पथ पर चलने वाले लोगो का विषाल समूह सतनामी समाज है जिसका प्रमुख उदद्ेष्य मानव-मानव एक समान, सत्य, प्रेम अहिंसा, स्वतंत्रता, स्वाधीनता एवं समानता, सत्य नाम ही ईष्वर है, नषा मुक्त समाज, पराई नारी को माता बहन समझना, मितव्ययिता आदि सतनाम संदेष है। महान संतषिरोमणी गुरूबाबा घासीदास जी के अनुसार मनखे-मनखे एक समान‘‘ अर्थात् मानव एवं अन्य पशु पक्षी, पहाड़, सहित सभी सजीव निर्जीव निर्माण का निर्धारण योनी अनुकुल मूल प्रवित्तियां एवं समानता प्रकृति प्रदत्त जातियां है और प्रकृति द्वारा इनमें कोई भेदभाव नहीं किया गया है। किसी व्यक्ति विषेष को भी इसके साथ भेदभाव करने का अधिकार नहीं है किन्तु मानव द्वारा निर्मित जाति भेदभाव है जिसमें अनेक वर्ग जाति नस्ल निहित है जिसे मानव आपस में ऊंच नीच भेदभाव, छुआछूत के वैमनस्य में उलझकर अपने मूल कार्य या योनी को भूल चुका है।

 

उपरोक्त संदर्भ के अनुसार महिला भी एक जीव है और उन्हे भी समानता का अधिकार है। समानता‘‘ षब्द का प्रयोग एक रूपता अथवा समरूपता से लिया जाता है परंतु यह अर्थ सही नहीं है। सामान्य रूप में समानता के व्यवहारिक जीवन मे कई आधार है। इनमें से प्रमुख आधार सामाजिक समानता, आर्थिक समानता, राजनीति समानता, शैक्षिक समानता और सांस्कृतिक समानता है। भारत के संविधान में अनुच्छेद 14 से 18 तक समानता या समता का मौलिक अधिकार भारत के सभी नागरिकांें को प्रदान किया गया है। संविधान में समानता के इस अधिकार का उल्लेख करने की आवष्यकता इसलिये पड़ी क्योंकि शताब्दियों से भारतीय समाज में कतिपय वर्ग जैसे हरिजन, अनुसूचित जाति जनजाति तथा समाज के पिछड़े वर्ग की महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार नहीं किया गया।

 

संत गुरूघासीदास जी का जन्म 18 दिसंबर सन् 1756 . में माता अमरौतिन एवं पिता श्री मंगतू राम के घर पवित्र धाम गिरौधपुरी में हुआ जो कि वर्तमान में छत्तीसगढ़ अंचल के रायपुर संभाग तहसील बलौदाबाजार विकासखण्ड कसडौल में स्थित है। 18 दिसंबर प्रतिवर्ष संपूर्ण सतनामी धर्मावलंबियो के लिये महान पर्व के रूप में मनाया जाता है तथा गिरौधपुरी धाम को एक पवित्र स्थल के रूप में जाना जाता है। सतनाम और सत और नाम दो शब्दों से बना है सत का अर्थ सत्य सम्मान नाम का अर्थ जो बार-बार विषेष अर्थ प्रयुक्त हो ऐसा विषेष अर्थ जो परम तत्व परमात्मा से ही संबंधित है अर्थात् सतनाम का सीधा संबंध परमात्मा अर्थात् सत्य की आत्मा से सीधा जोड़ा जा सकता है। इस तरह सतनाम दर्षन भारत की एक अत्यंत प्राचीन परंपरा है यह सीधे अध्यात्मिक दर्षन से संबंधित है। सतनाम दर्षन में संत गुरूघासीदास जी द्वारा दिये गये उपदेष संदेष हिन्दू और बौद्ध धर्म के उपदेषों के समान है। इस धर्म के अनुयायियों का प्रतीक चिन्ह जैतखाम है जो कि सफेद स्तंभ में सफेद कपड़ा उपर की ओर लहराता है। यह स्तंभ सत्य का प्रतीक है और अपने अनुयायियों को सत्य के लिये संघर्ष सत्य के साथ जीवन यापन की प्रेरणा प्रदान करता है अर्थात् जैतखाम सत्य का स्तंभ और सफेद कपड़ा या सफेद रंग शांन्ति का प्रतीक है। सतनाम पंथ के धर्मावलंबियो के द्वारा गाया जाने वाले पंथी गीत एवं नृत्य विष्व स्तर पर अपना स्थान रखता है जिसके माध्यम से संत गुरूघासीदास जी के उपदेषो का प्रचार प्रसार एवं महिमा का गुणगान किया जाता है। संत गुरूघासीदास जी के संत गुरू जगजीवन दास उत्तर प्रदेष के क्षत्रिय थे तथा इसी सतनाम परंपरा के उपासक थे। वे ईष्वर राम, कृष्ण, दुर्गा आदि को सतरूप में मानकर चलने वाले एक समन्वयवादी साधक, दार्षनिक तथा समाज सुधारक थे। गुरूघासीदास जी के सतसाधना मूलतः यौगिक धरातल पर केन्द्रीत रही है जिसका मूल उद्देष्य सिद्धांत निम्न है -

1ण्    मानव जीवन के दःुखों का समन करना।

2ण्    जनता की दरिद्र हरण करना।

3ण्    सत्यनाम ही ईष्वर है।

4ण्    मूर्ति पूजा निषेध।

5ण्    जाति प्रथा निषेध।

6ण्    माषांहार एवं जीव हत्या निषेध।

7ण्    मद्य एवं धु्रमप्रान निषेध।

8ण्    पराई नारी को माता बहन समझना।

9ण्    खेती में गाय का उपयोग का निषेध।

10ण्   मितव्ययिता।

11ण्   झुठ बोलना एवं चोरी करना निषेध।

संत गुरूघासीदास जी सतगृहस्थ, आडम्बरों के घोर विरोधी, निर्गुण परमपिता परमेष्वर के उपासक, सत्यवादी सत्य के उपासक, नीति उपदेषक, समाज सुधारक, सतनाम धर्म के प्रवर्तक, मानवतावादी संत थे। इस पृथ्वी भूतल को स्वर्ग बनाना केवल जनजागृति से ही संभव है। संतगुरूघासीदास जी के सतदर्षन का मूलाधार मानवतावादी है। उनके अनुसार तो मानव-मानव में किसी भी प्रकार का अंतर है और ना ही नर और नारी में कोई अंतर या भेद है। नारी को माया, अधम, पतिता, योग्य वस्तु कहना किसी भी प्रकार से सही नहीं है क्योंकि नारी ही नर या मानव की जननी है अर्थात् वह अमृत्य, करूणा, पूजा, ममता, प्र्रगति, सिद्धी, दिव्य प्रेरणा, प्रतिज्ञा, समता, शांन्ति, साधना, आदिषक्ति जीवन प्रेरणा का स्वरूप है। उसकी जागृति सम्मान के बिना समाज में परिवर्तन होना असंभव है। उन्होने अपने उपदेषों में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में संदेष दिया है कि नारी हमारी मां और बहन की तरह है जिन्हे हम आदर सम्मान देकर ही समाज को स्वर्ग बना सकते है।

 

भारत में स्त्रियों को ज्ञान, शक्ति और संपत्ति का प्रतीक माना जाता है। इनके रूपों को सरस्वती, दुर्गा, लक्ष्मी आदि देवियों के रूप में पूजा जाता है। नारी को समाज में नर की अर्धांगिनी के रूप में स्थान दिया गया है। नारी के महत्व को इस प्रकार समझा जा सकता है - ‘नारी परिवार की नींव है। परिवार समुदाय की तथा राष्ट्र की‘‘ जिस राष्ट्र में स्त्रियों को यथोचित सम्मान दिया जाता है वह राष्ट्र देष एक आदर्ष राष्ट्र देष होता है। कार्ल मार्क्स ने स्त्री शक्ति से संबंधित अपने विचार व्यक्त किया है किसी समाज के स्तर का मापन करने के लिये उस समाज में स्त्रियों की स्थिति को देखना चाहिएं।‘‘

 

भारत में महिलाओं की स्थिति में समय-समय पर परिवर्तन आया है। वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति पुरूषों की स्थिति के समान थी किन्तु मध्यकाल में मुगलों के शासनकाल में उनकी स्थिति में परिवर्तन आया। बाल विवाह महिला को षिक्षा प्रदान करने में उपेक्षा, पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथाएं पनपने लगी। बिटिसकाल में भारत में महिलाएं समाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवारिक सभी क्षेत्रों में पिछड़ती गई। वर्तमान में भारत में महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार अवष्य हुएं है किन्तु निम्न छोटी जाति की महिलाओं की स्थिति दयनीय है और उनमें सुधार होना अभी बाकी है। सतनाम दर्षन में संत गुरूघासीदास जी ने अपने अमृत वाणी संदेष दिया है -

1.     ‘‘दाई हा दाई आय‘‘ अर्थात् समस्त दुध देने वाली प्राणी जानवर हो या मनुष्य सभी मां है।

2.     ‘‘मोर हा तोर और तोर हा मोर बर कीरा आय‘‘ अर्थात् मेरी सभी वस्तु (धन-दौलत) वे सभी के लिये है किन्तु दूसरों का हीरा या पर स्त्री (मां, बहन, पत्नि) मेरे लिये कीटाणु के समान है।

3.     ‘‘मनखे-मनखे एक समान‘‘ अर्थात् सभी मनुष्य चाहे नर या नारी सभी एक समान है और दोनो को ही आदर, सम्मान समानता का अधिकार है।

4.     दीन-दलित को अपना प्रेम और विष्वास दो और पर स्त्री को माता मानो।

 

लोगो के मन में पहले तक आम धारण थी की छोटी निची जाति के लोग घृणित विषेषकर स्त्रियों, चरित्रहीन उपयोग की वस्तु होती थी। ऊंची जाति के लोग बलात् इन कमजोर महिलाओं को अपनी वासना का षिकार बनते थे। उचित षिक्षा एवं सामाजिक प्रतिष्ठा सम्मान नहीं मिलने के कारण पिछड़ी गरीब जाति की स्त्रियॉ आज भी शोषण उपयोग की वस्तु समझी जाती है। संतगुरूघासीदास जी ने लोगो के गिरते चरित्र को अनुभव कर अच्छे स्वच्छ चरित्र निर्माण का संदेष दिया। उन्होने अपने संदेष में पराई स्त्री को माता बहन के समान समझो और स्त्रियों को भी पराये पुरूष को योग्यता या उम्रानुसार भाई पिता मानो समझे। इस सिद्धांत से समाज में व्याप्त चरित्र भ्रष्टाचार में सुधार होगा एवं एक अच्छे स्वच्छ समाज का निर्माण संभव है किन्तु संस्कारगत निम्नतम स्थिति उन सामाजिक कष्टों को जन्म दे सकती है। वे सब समस्यायें इन जातियों का अंग रही है। सामाजिक सोपान क्रम में जातियांे की स्थिति नीचे थी। सभी उच्च जातियों के लोग उन्हे घृणा की दृष्टि से देखते थे। उन्हे पषु से भी निम्न समझा जाता था। संसार में राजनीतिक तथा धार्मिक आधार पर अन्याय और अत्याचार हुये है किन्तु भारत में अन्याय और शोषण को धार्मिक तथा सामाजिक अनुमति प्राप्त हुई। यहां पाप को पुण्य की संज्ञा माना जाता है। निम्न जाति के लोगो को मारने, पीटने में उच्च जाति के लोगो की पवित्रता नष्ट नहीं हुई। उनकी स्त्रियों के साथ शारीरिक संभोग करने में पवित्रता बनी रही। उनके हाथों से पैसा लेने में पाप नहीं लगा किन्तु उसके वस्त्र छूने में, उनका देखनंे में और उनसे बात करने में पवित्रता नष्ट हो जाती, धर्म नष्ट हो जाता, सत्कर्म का विनाष हो जाता, नरक का चित्र उन उच्च जाति के आंखो के सामने जाता। अतः संत गुरूघासीदास जी ने संदेष दिया - ‘‘दाई हा दाई आय‘‘ अर्थात् समस्त दुध देने वाली प्राणी जानवर या मनुष्य (नारी) हो, मां है। इस सिद्धांत से यह स्पष्ट होता है कि संत गुरूघासीदास बाबा जी ने तात्कालीन अन्याय पूर्ण असमान तथा जाति मूलक धार्मिक व्यवस्था पर आक्रमण किये। इसके जरिये उन्होने अपने अनुयायियों को इस व्यवस्था के चंगुल से मुक्त समानता सम्मान का मार्ग दिखाया।

 

संत गुरूघासीदास जी के सत् दर्षन का मूलाधार मानवतावादी है। उनके अनुसार तो मानव मानव में किसी प्रकार का अंतर है और नर नारी में उन्होने अपने अनुयायियों को संदेष दिया कि अपनी सभी धन दौलत के द्वारा उन गरीबों और निर्धन जनों के लिये खोलो और उनकी सेवा मदद करो ताकि वे अपनी वर्तमान स्थिति से उठ सकें किन्तु उनकी स्त्री (मां, बहन, बेटी, पत्नि) को सम्मान दो अर्थात् दूसरों की दौलत पर स्त्री पर बूरी नजर मत डालो। ये कीटाणु के समान है। ज्ञान प्राप्त करना सभी मानव का अधिकार है। गायत्री मंत्र में परमात्मा से बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना की जाती है किन्तु निम्न जातियों को ज्ञान और षिक्षा से भी वंचित रखा गया है। उनके बच्चों के लिये ज्ञान के मंदिर, पाठषाला और महाविद्यालय के दरवाजे बंद कर दिये गये। उन्हे धर्म पर चलने का उपदेष दिया गया किन्तु धर्म के विषय में कुछ भी जानने पर प्रतिबंध लगाया। उन्हे हिन्दू धर्म के सिद्धांतो में विष्वास करने के लिये बाध्य किया गया किन्तु जिन पुस्तकों में ये सिद्धांत लिये थे उन्हे पढ़ना या सुनना, यहां तक की देखना और छुना भी उनके लिये वर्जित कर दिया गया। महान संत बाबाजी अपने उपदेष सतनाम दर्षन में अपने अनुयायियों को संगठित होने एवं दूसरों की धन दौलत पर स्त्री पर बुरी नजर नहीं रखने का संदेष दिया। उन्होने उपदेष दिया कि नर-नारी दोनो है बराबर सम्मान एवं समानता के अधिकारी हैं चाहे वे उच्च या निम्न जातियों के क्यों हो।

 

किसी लेखक ने अपने विचार व्यक्त किया है वह हमारे लिये कुयें खोदता है, पर अपने प्रयोग के लिये उन्हें छू नहीं सकता। वह हमारे तालाब साफ करता है, पर उन पे पानी से मरे हो तो उनसे दूर ही रहना पड़ता है।

 

निम्न जाति की महिला आर्थिक, शारीरिक एवं मानसिक शोषण का षिकार रही। उनका जीवन स्तर निम्न (सूइ-नग) पर चला गया है। डनहे नारी अपने परिवार समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। वे रूखे-सूखे भोजन और वस्त्र के लिये अन्य (परिवार के अन्य सदस्य) पर निर्भर है। जूठन और उतरन ही क्रमषः उनकी दावत और पोषाक रही है। मकान नाम की वस्तु उसके पास नहीं रहती। स्वस्थ्य शब्द उन पर लागू ही नहीं हुआ। संतगुरूघासीदास ने अपने सिद्धांत में कहा है कि ‘‘छुआछूत और जातिप्रथा के बंधनों को तोड़कर सतनाम की उपासना करो अर्थात् सत्य की उपासना करो‘‘ और दीन-हीन दलित समाज को अपना प्रेम और विष्वास दो और परस्त्री को माता मानो। मनुष्य को जाति पाति के बंधन से उंचा उठकर समाज हीत में कार्य करने की उपदेष संत बाबाजी ने दिया है। उसीप्रकार स्त्री भी प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, सम्मान, समानता विष्वास की समान अधिकारी है।

 

ज्ञान बिना जीवन अंधकारमय या अज्ञान के घिरे में रहता है। विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारणों से महिलाओं को षिक्षा देना अनावष्यक समझा जाता है। ऐसा माना जाता है कि स्त्रियों को नौकरी या बाहर निकलने की क्या आवष्यकता है। तो फिर उन्हे षिक्षा दिलाने में लाभ क्या। षिक्षा के अभाव में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं रह सकीं और एक-एक करके उनके सभी अधिकार धीरे-धीरे छिनते चले गये और उनकी स्थिति समाज और परिवार में दयनीय हो गयी।

 

‘‘ज्ञान ही केवल एक ऐसा शस्त्र है जिसके द्वारा हम समाज में परिवर्तन की अखल जगा सकते है।‘‘ वास्तव में नारी इस सृष्टि की मूल है तथा अपने मूल को भूलाकर, उसे अपमानित कर कोई भी आगे नहीं बढ़ सका। अगर अपना अस्तित्व बचाना है, इस सृष्टि को स्वर्ग बनाना है तो हमें अपनी अस्मिता को पहचानना होगा। सतनाम दर्षन के पथ पर चलते हुएं नारी को वह सम्मान प्रदान करना होगा जिसकी वह अधिकारी है।  

 

संदर्भ ग्रंथ सूची

1.  डॉ. सूषमा जैन - प्रेमचंद के उपन्यासों में शोषित नारी, प्रकाषक - साहित्यकार - जयपुर।

2.  सीमा कुमारी - महिला अधिकार और भारतीय प्रावधान, उपकार प्रकाषक आगरा।

3.  राजबाला सिंह - मानवाधिकार और महिलायें, प्रकाषक - आविष्कार पब्लिषर्स, जयपुर 2006

4.  डॉ. एम.एम.लवानिया, डॉ. श्रीमती शीताली पडिवार-भारत में सामाजिक समस्यायें, प्रकाषक - रिसर्च पब्किेषन्स, जयपुर 2010

5.  डॉ.नूर मोहम्मद, डॉ.एम.एम.लवानिया - भारतीय समाज विस्तृत अध्ययन, प्रकाषक - कालेज बुक डिपो, जयपुर 2010

6.  रामनारायण शुक्ल, डॉ. विनय कुमार पाठक - गुरूघासीदास, प्रकाषक - गुरूघासीदास विष्वविद्यालय बिलासपुर 1986

 

 

 

 

Received on 16.03.2023        Modified on 02.04.2023

Accepted on 23.04.2023        © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences. 2023; 11(2):74-79.

DOI: 10.52711/2454-2679.2023.00012